क्या आपने कभी मन ही मन सोचा है कि दुर्गा सप्तशती का अखंड श्रद्धा और निष्ठा से पाठ करने के बावजूद भी जीवन में इच्छित फल क्यों नहीं मिल पाता? क्यों अनेक प्रार्थनाएँ, व्रत और तपस्या करने पर भी कुछ बाधाएँ अडिग बनी रहती हैं?
इसका रहस्य एक सूक्ष्म सत्य में छिपा है। हम देवी की उपासना तो करते हैं, परंतु उस गुप्त कुंजी को अक्सर भूल जाते हैं, जो साधना को पूर्णता प्रदान करती है। वही कुंजी है – अथ कीलकम् स्तोत्र।
इसे एक दिव्य दृष्टांत से समझें—जैसे आपके पास अमूल्य रत्नों से भरा एक खजाना हो, किंतु उसकी चाबी गुम हो जाए। दुर्गा सप्तशती वह दिव्य खजाना है, और कीलकम् स्तोत्र उसकी चाबी। यह चाबी स्वयं भगवान शिव ने इस खजाने की रक्षा हेतु बनाई थी।
यह केवल एक स्तोत्र नहीं, बल्कि साधक की चेतना को खोलने वाला तंत्र है। इसके माध्यम से साधना में स्थित अवरोध हटते हैं और साधक की प्रार्थना देवी तक सहजता से पहुँचती है।
इस दिव्य रहस्य का गहन अध्ययन और साधना आपके जीवन में असीम अनुग्रह, सफलता और समृद्धि के द्वार खोल सकती है।
अथ कीलकम् क्या है?
अथ कीलकम्, जिसे कीलक स्तोत्र कहा जाता है, दुर्गा सप्तशती का केवल एक अंग नहीं, बल्कि उसकी आत्मा से जुड़ी हुई रहस्यमयी कड़ी है। यह मात्र कुछ श्लोकों का संकलन नहीं, बल्कि एक ऐसा आध्यात्मिक ताला है, जिसे स्वयं महादेव ने स्थापित किया था।
“कीलक” शब्द का अर्थ है – कील या स्थिर करने वाली शक्ति। भगवान शिव ने इस स्तोत्र के माध्यम से सप्तशती की दिव्य ऊर्जा को कीलित किया, ताकि इसका प्रभाव केवल उन्हीं तक पहुँचे जो श्रद्धा, शुद्धता और भक्ति के पात्र हों। इस प्रकार, यह शक्ति साधक की परीक्षा भी है और साधना की रक्षा भी।
कीलक स्तोत्र के बिना सप्तशती का पाठ ऐसा है, जैसे किसी बंद कक्ष के बाहर खड़े होकर भीतर की दिव्य ज्योति की झलक पाने का प्रयास करना। जब साधक पूर्ण श्रद्धा से इस स्तोत्र का जप करता है, तो यह उस ताले को खोलने की प्रक्रिया है। तब सप्तशती की सुप्त ऊर्जा जाग्रत होती है और साधक को देवी का अखंड अनुग्रह प्राप्त होता है।
यही कारण है कि सप्तशती का पाठ प्रारंभ करने से पहले स्तोत्र का उच्चारण अनिवार्य माना गया है। यह वह चाबी है जो साधना को फलित करती है और साधक के जीवन में आध्यात्मिक प्रकाश, शक्ति और शांति का संचार करती है।
भगवान शिव ने सप्तशती को क्यों कीलित किया?
यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जब श्री दुर्गा सप्तशती स्वयं माँ की असीम महिमा और शक्ति का भंडार है, तो फिर महादेव ने उसे कीलित क्यों किया? इस रहस्य के भीतर भगवान शिव की गहन दूरदर्शिता और असीम करुणा छिपी हुई है।
1. ऊर्जा के दुरुपयोग से रक्षा:
दुर्गा सप्तशती में न केवल भक्ति और स्तुति का दिव्य स्वर है, बल्कि उसमें तांत्रिक प्रयोगों के बीज भी छिपे हैं—मारण, मोहन, उच्चाटन जैसी प्रचंड शक्तियाँ।
यदि यह अमृत-जैसा ज्ञान किसी दुष्ट या स्वार्थी मनुष्य के हाथ पड़ जाए, तो वह इसका उपयोग विनाश के लिए कर सकता है।
इसीलिए भगवान शिव ने इसे कीलित किया, ताकि यह ऊर्जा केवल उन्हीं तक पहुँचे, जो सात्विकता, निस्वार्थ भाव और सच्ची भक्ति से युक्त हों।
2. श्रद्धा और समर्पण की परीक्षा
कीलकम् केवल एक स्तोत्र नहीं, बल्कि साधक की परीक्षा है।
यह परखता है कि साधक में श्रद्धा कितनी गहरी है, धैर्य कितना स्थिर है और समर्पण कितना निष्कलुष है।
जो व्यक्ति केवल त्वरित फल की आकांक्षा से पाठ करता है, वह इस परीक्षा में असफल हो जाता है।
परंतु जो साधना को सम्पूर्ण विधि से करता है, वही देवी की कृपा का वास्तविक अधिकारी बनता है।
3. फल की स्थिरता
जैसे एक कील किसी वस्तु को स्थिर कर देती है, वैसे ही कीलक स्तोत्र साधक को प्राप्त होने वाले पुण्य और आशीर्वाद को स्थिर कर देता है।
श्लोक ६ में स्वयं कहा गया है कि अन्य मंत्रों से प्राप्त पुण्य समय के साथ क्षीण हो सकता है, किंतु सप्तशती से प्राप्त पुण्य कभी नष्ट नहीं होता। यह स्थिरता ही कीलक का दिव्य वरदान है।
जैसे एक परमाणु ऊर्जा केंद्र अपार शक्ति उत्पन्न करता है, किंतु उस शक्ति को नियंत्रित और सुरक्षित रखने के लिए विशेष प्रणालियाँ लगाई जाती हैं। उसी प्रकार कीलकम् वह आध्यात्मिक सुरक्षा प्रणाली है जो सप्तशती की असीम ऊर्जा को संतुलित और सही दिशा में प्रवाहित करती है। इसीलिए महादेव का यह कार्य कोई बंधन नहीं, बल्कि करुणा का वरदान है—ताकि यह शक्ति सदा शुभ, सात्विक और मंगलकारी मार्ग में ही प्रयुक्त हो।
कीलक स्तोत्र के दिव्य लाभ:
अथ कीलकम् स्तोत्र केवल एक औपचारिक पाठ नहीं, बल्कि साधना का आधारभूत स्तंभ है। यह वह कुंजी है जो सप्तशती की सुप्त ऊर्जा को जाग्रत करती है और साधक को देवी की असीम कृपा से जोड़ देती है।
1. कार्यों में सिद्धि:
जब साधक श्रद्धापूर्वक स्तोत्र का जप करता है, तो सप्तशती के मंत्र सक्रिय हो उठते हैं। यह जागरण साधक के जीवन में अटके हुए कार्यों को गति देता है और उसे सफलता के मार्ग पर अग्रसर करता है।
2. शत्रुओं का नाश:
कीलकम् साधक के चारों ओर एक दिव्य कवच रचता है।
यह कवच उसे दृश्य और अदृश्य शत्रुओं से बचाता है, और उनके षड्यंत्र स्वयं विफल हो जाते हैं। इस प्रकार, साधक निर्भय होकर धर्ममार्ग पर आगे बढ़ता है।
3. अकाल मृत्यु से रक्षा:
श्लोक १० में प्रतिज्ञा है—“नाऽपमृत्युवशं याति”। अर्थात जो साधक कीलक स्तोत्र का पाठ करता है, वह अकाल मृत्यु के वश में नहीं आता। यह देवी का दिव्य वचन है, जो जीवन को सुरक्षित और आयुष्य को पूर्ण बनाता है।
4. मोक्ष की प्राप्ति:
कीलकम् केवल सांसारिक कल्याण तक सीमित नहीं है।
यह साधक को परम मार्ग पर भी अग्रसर करता है। मृत्यु के पश्चात साधक को देवी का परम धाम प्राप्त होता है और आत्मा मोक्ष के प्रकाश में विलीन हो जाती है।
5. ऐश्वर्य और सौभाग्य
देवी की कृपा से साधक के जीवन में धन, धान्य, आरोग्य और सौभाग्य की वृद्धि होती है। परिवार में सुख-शांति और समृद्धि का वास होता है। कीलकम् साधक को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की सम्पन्नता प्रदान करता है।
6. भय और संदेह से मुक्ति
यह स्तोत्र साधक के चित्त से हर प्रकार का भय, शंका और नकारात्मकता को दूर करता है। जिससे मन स्थिर होता है, आत्मविश्वास जागृत होता है और साधक निर्भय होकर अपनी साधना तथा जीवन को जीता है।
इस प्रकार, अथ कीलकम् स्तोत्र साधक के जीवन में शक्ति, शांति, समृद्धि और मोक्ष—चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने वाला दिव्य साधन है। यह वह चमत्कारी कुंजी है जो भक्ति को सिद्धि में और साधना को पूर्णता में रूपांतरित करती है।
अथ कीलकम्: श्लोक-दर-श्लोक दिव्य अर्थ
अब हम अथ कीलकम् स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक का गहन और आत्मिक भावार्थ जानेंगे। यह केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि साधना के रहस्यों की वह कुंजी है जो साधक के हृदय को देवी के सान्निध्य तक पहुँचा देती है।
ॐ
।। श्रीदुर्गायै नमः ।।
अस्य श्रीकीलकस्तोत्रमंत्रस्य शिवऋषिः, अनुष्टुपछंदः, श्रीमहासरस्वती देवता, श्रीजगदंबाप्रीत्यर्थं सप्तशतीपाठाङ्गजपे विनियोगः ।
अर्थ: यह कीलक स्तोत्र भगवान शिव द्वारा प्रकट किया गया है, इसका छंद अनुष्टुप है और अधिष्ठात्री देवी स्वयं महासरस्वती हैं। सप्तशती पाठ के समय यह स्तोत्र एक अंग के रूप में प्रयोग किया जाता है, जिससे साधना पूर्ण और फलदायी बनती है।
ॐ नमश्चण्डिकायै ।
ॐ मार्कण्डेय उवाच ।
विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे । श्रेयः प्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे ।।1।।
अर्थ: ॐ चंडिका देवी को नमस्कार हो। यहाँ ऋषि मार्कण्डेय भगवान शिव का स्मरण कर रहे हैं।
वे कहते हैं—‘नमस्कार है उस दिव्य स्वरूप को जिनका सम्पूर्ण शरीर शुद्ध ज्ञान से ही बना है; जिनकी दृष्टि ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद रूपी दिव्य नेत्रों से आलोकित है; जो समस्त प्राणियों के परम कल्याण का साधन हैं; और जिनके मस्तक पर अर्धचंद्र की शीतल छाया शोभित है। ऐसे महादेव को बारंबार प्रणाम।’
सर्वमेतद्विना यस्तु मन्त्राणामपि कीलकम् । सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जाप्यतत्परः ।।2।।
अर्थ:
सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि । एतेन स्तुवतां नित्यं स्तोत्रमात्रेण सिद्धयति ।।3।।
अर्थ: इस श्लोक में बताया गया है कि दुर्गा सप्तशती का नित्य स्तवन करने वाले भक्त को देवी स्वयं सिद्धियाँ प्रदान करती हैं।उसके सभी कार्य सिद्ध होने लगते हैं और शत्रु या बाधाएँ उसके मार्ग से हट जाती हैं।
न मन्त्रो नौषधं तत्र न किंचिदपि विद्यते । विना जाप्येन सिद्ध्येत सर्वमुच्चाटनादिकम् ।।4।।
अर्थ: इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि दुर्गा सप्तशती के पाठक को किसी अन्य मंत्र, औषधि या बाहरी उपाय की आवश्यकता नहीं होती।
सिर्फ सप्तशती का नियमित और श्रद्धापूर्वक जप ही इतना सामर्थ्यवान है कि उसके द्वारा सभी प्रकार के कार्य, यहाँ तक कि शत्रुनाश और विघ्नों का निवारण भी, सहजता से सिद्ध हो जाते हैं।
समग्राण्यपि सिद्ध्यंति लोकशंकामिमां हरः । कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम् ।।5।।
अर्थ: इस श्लोक में कहा गया है कि जो भगवती की स्तुति सप्तशती के माध्यम से करते हैं, उनकी सभी इच्छाएँ और कार्य सिद्ध हो जाते हैं। परंतु जब लोक में यह शंका उठी कि अनेक साधन और मंत्रों में से सर्वोत्तम साधन कौन-सा है, तब स्वयं भगवान शिव ने यह संदेह दूर किया। उन्होंने जिज्ञासुओं से स्पष्ट कहा कि श्री दुर्गा सप्तशती ही सर्वश्रेष्ठ और कल्याणकारी साधन है।
स्तोत्रं वै चंण्डिकायास्तु तच्च गुह्यं चकार सः। समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्नियन्त्रणाम् ।।6।।
अर्थ: इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि भगवान शंकर ने चण्डिका स्तोत्र, अर्थात् श्री दुर्गा सप्तशती, को अत्यंत गुह्य और पवित्र बनाया। उन्होंने अथ कीलकम् को इस प्रकार नियोजित किया कि साधना केवल श्रद्धालु और योग्य साधकों तक ही पहुँचे। अन्य मंत्रों के जप से प्राप्त पुण्य समय के साथ क्षीण हो सकता है, परंतु जो पुण्य सप्तशती के पाठ से मिलता है, वह शाश्वत और अविनाशी है। यही कारण है कि इस स्तोत्र का पाठ विधिवत्, नित्य नियमपूर्वक और अटूट श्रद्धा-भक्ति से करना आवश्यक है।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेव न संशयः। कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः ।।7।।
अर्थ: इस श्लोक में प्रतिपादित है कि यदि कोई साधक अन्य मंत्रों का जप भी करता हो, परंतु जब वह श्रद्धा और नियमपूर्वक श्री दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान करता है, तो उसका भी संपूर्ण कल्याण सुनिश्चित होता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।विशेष रूप से, कृष्ण पक्ष की अष्टमी और चतुर्दशी तिथियाँ सप्तशती पाठ के लिए अत्यंत शुभ मानी गई हैं। इन तिथियों पर समाहित होकर, मन को एकाग्र कर किया गया पाठ साधक को दिव्य कृपा और मंगलकारी फल प्रदान करता है।
ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति। इत्थंरूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम् ।।8।।
अर्थ: इस श्लोक में यह रहस्य प्रकट किया गया है कि भगवती केवल उसी उपासक पर प्रसन्न होती हैं, जो अपने न्यायपूर्वक अर्जित धन और संसाधनों को देवी को समर्पित करता है और उसे देवी का प्रसाद मानकर पुनः स्वीकार करता है।
सच्चा भक्त वही है, जो अपने भोग को भी भक्ति में रूपांतरित कर, हर प्राप्ति को माँ का वरदान मानता है। परंतु जो व्यक्ति केवल स्वार्थ में लिप्त रहता है और समर्पण नहीं करता, उस पर देवी की कृपा स्थिर नहीं होती।
इसी सत्य को स्थापित करने के लिए भगवान शंकर ने सप्तशती स्तोत्र को कीलित किया—ताकि साधक भक्ति के साथ-साथ समर्पण और श्रद्धा की शुद्धता भी सीख सके।
यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति सुस्फुटम् । ससिद्धः सगणः सोऽपि गन्धर्वो जायते वने ।।9।।
अर्थ: यहाँ बताया गया है कि जो उपासक अथ कीलकम् का निष्कीलन कर, अर्थात् देवी की कृपा से उस बंधन को दूर कर, प्रतिदिन स्पष्ट उच्चारण के साथ इस स्तोत्र का जप करता है, वह सिद्धि को प्राप्त करता है। ऐसा साधक न केवल सांसारिक जीवन में सफल होता है, बल्कि दिव्य लोकों में भी उच्च स्थान प्राप्त करता है।
वह देवगणों, गंधर्वों अथवा सिद्ध पुरुषों की श्रेणी में प्रतिष्ठित होता है और देवी के अनुग्रह का अधिकारी बनता है।
न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापि हि जायते। नाऽपमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ।।10।।
अर्थ: इस श्लोक में देवी की अपार कृपा का आश्वासन है। जो उपासक अथ कीलकम् का नित्य जप करता है, वह जहाँ भी विचरण करता है, भय से सदा मुक्त रहता है।दृश्य और अदृश्य किसी भी शक्ति का भय उसे स्पर्श नहीं कर पाता।
इसके साथ ही, ऐसा साधक कभी अकाल मृत्यु के वश में नहीं आता। उसका जीवन देवी की कृपा से सुरक्षित रहता है और जब मृत्यु का समय आता है, तब वह साधारण मृत्यु नहीं, बल्कि मोक्षदायिनी होती है।
ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत ह्यकुर्वाणो विनश्यति। ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः ।।11।।
अर्थ: इस श्लोक में यह स्पष्ट कहा गया है कि श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से पूर्व उसके समस्त विधान और रहस्यों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है।
जो साधक अज्ञानवश या उपेक्षा से बिना समझे पाठ आरंभ करता है, वह अपेक्षित फल से वंचित रह जाता है और उसकी साधना अधूरी रहकर नाश को प्राप्त होती है।
ज्ञानी और विवेकी साधक सबसे पहले अथ कीलकम् को समझते हैं, फिर श्रद्धा और नियमपूर्वक पाठ का आरंभ करते हैं। इस प्रकार किया गया जप ही सम्पूर्ण और सिद्धिकारक होता है।
सौभाग्यादि च यत्किंचिदृश्यते ललनाजने। तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जाप्यमिदं शुभम् ।।12।।
अर्थ: इस श्लोक में कहा गया है कि स्त्रियों में जो भी सौभाग्य, सुषोभा, माधुर्य और मंगलमय लक्षण दिखाई देते हैं, वे सब भगवती के प्रसाद का ही फल हैं। स्त्री-जाति में दिखने वाला यह सौंदर्य और सौभाग्य वास्तव में माँ की करुणा और कृपा का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसलिए यह स्तोत्र अत्यंत शुभ माना गया है।
शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन्स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः। भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत् ।।13।।
अर्थ: इस श्लोक में कहा गया है कि जब श्री दुर्गा सप्तशती का जप सावधानीपूर्वक, स्पष्ट उच्चारण के साथ और ऊँचे स्वर में किया जाता है, तब साधक के जीवन में विपुल संपत्ति और समृद्धि का आगमन होता है।
सतर्कता और शुद्ध उच्चारण साधना के प्राण माने गए हैं। जब जप में शुद्ध ध्वनि और ध्यान का संगम होता है, तो वह साधक के भीतर और बाहर दोनों ही स्तरों पर दिव्य ऊर्जा का संचार करता है।
ऐश्वर्यं यत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः। शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः ।।14।।
अर्थ: यहाँ स्तुति की पराकाष्ठा व्यक्त की गई है। वह भगवती जगदंबा, जिनकी कृपा से साधक को ऐश्वर्य, सौभाग्य, स्वास्थ्य और समृद्धि प्राप्त होती है; जिनकी शक्ति से शत्रुओं का नाश होता है और अंततः परम लक्ष्य—मोक्ष की प्राप्ति होती है;
उन कल्याणमयी माँ की स्तुति भला कौन न करेगा?
संपूर्ण जगत उनका ऋणी है, क्योंकि हर सौंदर्य, हर आनंद और हर कल्याण उनकी ही कृपा से है।
एवं भगवत्याः कीलकस्तोत्रम् ।
 





