अर्गला स्तोत्र: हर संकट मिटाने वाला शक्तिशाली पाठ

Nikhil

October 7, 2025

माँ दुर्गा का दिव्य स्वरूप — सिंह पर आरूढ़ देवी, भक्त को आशीर्वाद देती हुई, अर्गला स्तोत्र के आध्यात्मिक भाव का प्रतीक।

क्या आप अपने जीवन में बार-बार आने वाली रुकावटों, असफलताओं और चुनौतियों से निराश हो चुके हैं? क्या आप ऐसे दिव्य उपाय की खोज में हैं जो न केवल आपकी समस्याओं को दूर करे, बल्कि आपको सौंदर्य, विजय, यश और असीम सौभाग्य का वरदान भी प्रदान करे?

यदि आपका उत्तर ‘हाँ’ है, तो उसका समाधान अर्गला स्तोत्र में निहित है।

अर्गला स्तोत्र देवी दुर्गा की आराधना का अत्यंत शक्तिशाली और रहस्यमयी स्तोत्र है, जो मार्कण्डेय पुराण में वर्णित दुर्गा सप्तशती का एक अविभाज्य अंग है।
‘अर्गला’ शब्द का अर्थ है — कुंडी या अवरोध
यह स्तोत्र उन सभी अदृश्य बाधाओं की कुंजी है जो हमारे जीवन के द्वार को बंद कर देती हैं। इसके पाठ से वह कुंडी खुलती है और देवी माँ की कृपा के द्वार स्वतः प्रकट हो जाते हैं।

इस लेख में हम अर्गला स्तोत्र के गूढ़ अर्थ, इसके चमत्कारी लाभ तथा सही पाठ विधि को समझेंगे, ताकि आप भी इसके माध्यम से अपने जीवन में दिव्य परिवर्तन का अनुभव कर सकें।

अर्गला स्तोत्र क्या है?

अर्गला स्तोत्र दुर्गा सप्तशती के पाठ का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है, जिसे आरंभ में कवच और कीलक स्तोत्र के साथ पढ़ा जाता है।
यद्यपि यह मात्र 23 श्लोकों का संक्षिप्त स्तोत्र है, परंतु इसका प्रभाव अत्यंत गहरा और आध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली है।

रचनाकार एवं देवता: इस स्तोत्र के ऋषि भगवान विष्णु हैं, छंद अनुष्टुप् है, और इसकी अधिष्ठात्री देवी श्रीमहालक्ष्मी हैं। इसका पाठ श्री जगदम्बा की प्रसन्नता और कृपा प्राप्ति के लिए किया जाता है।

शाब्दिक अर्थ: ‘अर्गला’ का अर्थ है बाधा, रोक या अवरोध
यह स्तोत्र देवी माँ से विनम्र प्रार्थना है कि वे हमारे आध्यात्मिक और सांसारिक जीवन में उपस्थित सभी अवरोधों को दूर करें, ताकि हम दुर्गा सप्तशती के मुख्य पाठ का पूर्ण फल प्राप्त कर सकें।

इसे एक सरल उपमा से समझा जा सकता है —

  • कवच स्तोत्र उस दिव्य महल (दुर्गा सप्तशती) में प्रवेश से पूर्व धारण किया जाने वाला सुरक्षा कवच है।
  • अर्गला स्तोत्र उस महल के मुख्य द्वार की कुंडी को खोलने की प्रार्थना है।
  • कीलक स्तोत्र उस दिव्य ताले की चाबी को सक्रिय करने की प्रक्रिया है।

अतः अर्गला स्तोत्र का पाठ किए बिना सप्तशती का पाठ करना ऐसा ही है जैसे बंद द्वार के बाहर खड़े होकर महल की भव्यता की केवल कल्पना करना।
यह स्तोत्र देवी माँ की कृपा प्राप्ति के मार्ग को निष्कंटक बनाकर साधक के जीवन में दिव्य ऊर्जा, सफलता और शांति का संचार करता है।

दुर्गा सप्तशती में अर्गला स्तोत्र का महत्व:

अक्सर साधक यह प्रश्न करते हैं कि दुर्गा सप्तशती के मुख्य पाठ से पूर्व कवच, अर्गला और कीलक स्तोत्र का पाठ क्यों आवश्यक माना गया है।
शास्त्रों के अनुसार, दुर्गा सप्तशती के मंत्र अत्यंत शक्तिशाली और गूढ़ हैं। प्रत्येक साधक के लिए उनका सीधा जप करना सदैव फलदायी नहीं होता।

अर्गला स्तोत्र साधक को मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप से मुख्य पाठ के लिए तैयार करता है। यह एक संवेदनात्मक सेतु की तरह कार्य करता है — जो साधक के अंतःकरण को देवी की ऊर्जा से जोड़ता है और यह सुनिश्चित करता है कि देवी की कृपा उस तक निर्बाध रूप से प्रवाहित हो।

यह स्तोत्र एक भक्त की अपनी माँ से की गई सरल, सच्ची और हृदयस्पर्शी प्रार्थना है।
जहाँ अन्य अनुष्ठान विधि और नियमों से बंधे होते हैं, वहीं अर्गला स्तोत्र में भक्त एक निष्कपट बालक की भाँति माँ से विनती करता है —

“रूपं देहि, जयं देहि, यशो देहि, द्विषो जहि।”
(हे माता, मुझे सौंदर्य दो, विजय दो, यश दो, और मेरे शत्रुओं का नाश करो।)

यह सीधी, निष्कलुष और आत्मीय पुकार देवी को अत्यंत प्रिय है।
कहा गया है कि जब साधक इस भावना से अर्गला स्तोत्र का पाठ करता है, तो देवी तुरंत उसकी प्रार्थना सुनती हैं और उसके जीवन से बाधाएँ हटाने लगती हैं।

अर्गला स्तोत्र का पाठ करने के चमत्कारी लाभ:

अर्गला स्तोत्र का नियमित, श्रद्धापूर्वक और भावनापूर्ण पाठ जीवन में अद्भुत परिवर्तन लाता है। यह न केवल बाहरी परिस्थितियों को अनुकूल बनाता है, बल्कि साधक के अंतर्मन को भी प्रकाशमय कर देता है। इसके प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं-

  • सर्व बाधाओं का नाश:
    यह स्तोत्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र — चाहे वह करियर, स्वास्थ्य, विवाह या आर्थिक स्थिति हो — में आने वाली रुकावटों को दूर कर मार्ग को सुगम बनाता है।
  • शत्रुओं पर विजय:
    द्विषो जहि” — अर्थात् शत्रुओं का नाश करो — यह प्रार्थना बार-बार दोहराई गई है। इसका अर्थ केवल बाह्य शत्रु नहीं, बल्कि भीतर के शत्रु जैसे क्रोध, लोभ, ईर्ष्या और अहंकार का भी दमन है।
  • सौभाग्य और समृद्धि की प्राप्ति:
    माँ जगदम्बा की कृपा से साधक को सौभाग्य, आरोग्य और परम सुख प्राप्त होता है। श्लोक 10 में कहा गया है — “देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।”
    अर्थात्, हे माँ! मुझे सौभाग्य, आरोग्य और परम आनंद प्रदान करें।
  • आकर्षण एवं व्यक्तित्व का विकास:
    रूपं देहि” की प्रार्थना केवल बाह्य सुंदरता के लिए नहीं, बल्कि आंतरिक तेज, दिव्य आभा और आत्मविश्वास से भरे व्यक्तित्व के लिए है, जिससे व्यक्ति समाज में सम्मान प्राप्त करता है।
  • अखंड विजय और यश की प्राप्ति:
    जयं देहि, यशो देहि” की वाणी साधक को निरंतर सफलता और यश प्रदान करती है। विद्यार्थी, व्यवसायी या कर्मशील व्यक्ति — सभी के लिए यह वाक्य अत्यंत फलदायी है।
  • मनोवांछित फल की पूर्ति:
    श्लोक 21 में स्पष्ट रूप से प्रार्थना की गई है — “पुत्रान्देहि धनं देहि सर्वकामांश्च देहि मे।”
    अर्थात्, हे माँ! मुझे पुत्र, धन और सभी कामनाओं की पूर्ति का वरदान प्रदान करें।
  • उत्तम पारिवारिक सुख की प्राप्ति:
    श्लोक 22 में देवी से प्रार्थना की गई है — “पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।”
    अर्थात्, हे माँ! मुझे मनोनुकूल, सद्गुणों से संपन्न जीवनसंगिनी प्रदान करें, जो इस संसार रूपी सागर से तारने में सहायक हो।

अर्गला स्तोत्र का यह पाठ केवल सांसारिक सिद्धियों के लिए नहीं, बल्कि आत्मिक शुद्धि और दिव्य चेतना के जागरण के लिए भी किया जाता है।
जो साधक श्रद्धा और समर्पण के साथ इसका जप करता है, उसके जीवन में देवी की अनुकंपा अवश्य प्रवाहित होती है।

अर्गला स्तोत्र — सम्पूर्ण पाठ (सरल अर्थ सहित):

स्तोत्र का पाठ करते समय मन को शांत रखें और माँ दुर्गा के दिव्य स्वरूप का ध्यान करें।इन श्लोकों के माध्यम से साधक देवी से आंतरिक शक्ति, समृद्धि और सद्बुद्धि की प्रार्थना करता है।अर्थ पढ़ते-पढ़ते उसके भावों को अपने हृदय में अनुभव करें — यही इस स्तोत्र का सच्चा सार है।

।। श्रीदुर्गायै नमः ।।

अस्य श्रीअथार्गलास्तोत्रमंत्रस्य विष्णुर्ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रीजगदंबा प्रीतये सप्तशतीपाठाङ्गजपे विनियोगः ।

अर्थ (भावार्थ):
इस श्री अर्गला स्तोत्र के ऋषि भगवान् विष्णु माने गए हैं, छन्द अनुष्टुप् है, और इसकी अधिष्ठात्री देवी श्री महालक्ष्मी हैं। इस स्तोत्र का विनियोग (उद्देश्य) श्री जगदम्बा की प्रसन्नता तथा श्री दुर्गा सप्तशती पाठ के अंग रूप में जप करने हेतु किया जाता है।

यह विनियोग शास्त्रीय परंपरा के अनुसार आरंभ में उच्चारित किया जाता है, जिससे पाठ की दिशा, उद्देश्य और देवता का स्मरण स्पष्ट होता है।

ॐ नमश्चण्डिकायै ।

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी । दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ।।

भावार्थ:
हे जयंती! हे मंगलदायिनी काली! हे भद्रकाली! हे कपालिनी!
हे दुर्गा! हे क्षमामयी! हे शुभस्वरूपा शिवा! हे पालन करने वाली धात्री! हे स्वाहा! हे स्वधा! — आप सभी को मेरा कोटि-कोटि नमस्कार।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक देवी के विविध रूपों की वंदना है — जो सृष्टि, पालन और संहार की समस्त शक्तियों का एकीकृत स्वरूप हैं। साधक इस स्तुति के माध्यम से समस्त दैवी शक्तियों को नमन करता है, जिससे भीतर संतुलन, पवित्रता और शक्ति का संचार होता है।

मधुकैटभविद्रावि विधातृवरदे नमः ।रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे देवी! मधु और कैटभ नामक असुरों का विनाश करने वाली, तथा सृष्टिकर्ता ब्रह्मा को वरदान देने वाली भगवती! आपको मेरा प्रणाम है। मुझे सुंदर रूप, विजय, यश प्रदान करें और मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक आत्म-शक्ति और विजय की कामना का प्रतीक है। यहाँ “शत्रु” केवल बाहरी नहीं, बल्कि भीतर के अहंकार, आलस्य, भय और संदेह जैसे मानसिक दोष भी हैं। देवी की कृपा से साधक इन्हें पराजित कर दिव्य तेज और आत्मबल प्राप्त करता है।

महिषासुरनिर्नाशविधात्रि वरदे नमः ।रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे देवी! महिषासुर का संहार करने वाली, और अपने भक्तों को वरदान देने वाली भगवती! आपको मेरा विनम्र प्रणाम।
आप मुझे दिव्य सौंदर्य (रूप), विजय (जय), और यश प्रदान करें, तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक दिव्य स्त्री-शक्ति की उस महिमा का स्मरण कराता है, जो अधर्म और अहंकार के प्रतीक महिषासुर का अंत करती है।
साधक यहाँ देवी से प्रार्थना करता है कि वह उसके भीतर के नकारात्मक विचारों, भय और अहं की प्रवृत्तियों का नाश करें तथा सौंदर्य, सफलता और कीर्ति जैसी सत्प्रवृत्तियों का विकास करें।

वन्दितांघ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि ।रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे देवी! जिनके पवित्र चरण समस्त देवताओं और ऋषियों द्वारा वंदित हैं, जो अपने भक्तों को सर्व प्रकार का सौभाग्य प्रदान करती हैं — मुझे रूप, विजय और यश प्रदान करें तथा मेरे शत्रुओं का विनाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
देवी के चरणों की वंदना विनम्रता, समर्पण और शरणागति का प्रतीक है। यहाँ साधक यह स्वीकार करता है कि सच्चा सौभाग्य बाहरी संपदा से नहीं, बल्कि देवी की कृपा और आत्मिक शांति से प्राप्त होता है। देवी की कृपा से जीवन में सौंदर्य, यश और विजय की दीप्ति स्थायी रूप से बनी रहती है।

रक्तबीजवधे देवि चंडमुंडविनाशिनि ।रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे देवी! रक्तबीज जैसे पुनः-पुनः उत्पन्न होने वाले असुर का वध करने वाली, और चण्ड-मुण्ड जैसे अत्याचारी राक्षसों का संहार करने वाली भगवती! आप मुझे दिव्य रूप, विजय और यश प्रदान करें तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक अपरिमित नकारात्मक विचारों और विकारों पर नियंत्रण की प्रेरणा देता है। रक्तबीज उन नकारात्मक भावनाओं का प्रतीक है जो एक समाप्त होने पर दूसरी रूप में जन्म लेती हैं। देवी के स्मरण से साधक अपने भीतर की पुनः-पुनः उठने वाली वासनाओं, भय और मोह को नष्ट कर आत्मिक स्थिरता प्राप्त करता है।

अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रु-विनाशिनि ।रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे देवी! जिनका स्वरूप, गुण और लीला मानव-बुद्धि से परे हैं, जो समस्त शत्रुओं का विनाश करने वाली हैं— आप मुझे रूप, विजय और यश प्रदान करें तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक देवी के अद्भुत, अपरिमेय और दिव्य स्वरूप की वंदना है। देवी केवल बाहरी शत्रुओं का नहीं, बल्कि साधक के अंतःशत्रुओं—क्रोध, ईर्ष्या, मोह, और अहंकार—का भी विनाश करती हैं। उनकी कृपा से मन निर्मल होता है और साधक भीतर के प्रकाश को पहचानने लगता है।

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चण्डिके दुरितापहे ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥

भावार्थ:
हे चण्डिके! समस्त दुर्गति और पापों का नाश करने वाली देवी!
जो भक्तजन सदा आपके समक्ष श्रद्धा और भक्ति के साथ नतमस्तक रहते हैं, आप उन्हें रूप, विजय और यश प्रदान करें तथा उनके शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक भक्ति और समर्पण की शक्ति को दर्शाता है। जब साधक अहंकार त्यागकर विनम्रता से देवी के चरणों में शरण लेता है, तब देवी उसके जीवन से समस्त कष्टों और बाधाओं का निवारण करती हैं। यह भाव सिखाता है कि सच्चा आत्मसमर्पण ही विजय और यश का द्वार खोलता है।

स्तुवद्भयो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे चण्डिके! रोगों और व्याधियों का नाश करने वाली दिव्य माता!
जो भक्त श्रद्धा और भक्ति के साथ आपका स्तवन करते हैं,
आप उन्हें रूप, विजय और यश प्रदान करें तथा उनके शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक शरीर और मन — दोनों की शुद्धि और आरोग्यता का संदेश देता है। “व्याधि” केवल शारीरिक रोग नहीं, बल्कि मानसिक अशांति, चिंता, और असंतुलन का भी प्रतीक है। देवी की उपासना से साधक में शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति, और आत्मिक प्रकाश का संचार होता है।

चण्डिके सततं ये त्वामर्चयंतीह भक्तितः । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।9।।

भावार्थ:
हे चण्डिके! जो भक्त इस संसार में निष्ठा और भक्ति के साथ निरंतर आपकी अर्चना करते हैं,
आप उन्हें रूप, विजय और यश प्रदान करें तथा उनके शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक निरंतर साधना और स्थायी भक्ति के महत्व को प्रकट करता है।
जो व्यक्ति देवी की आराधना को अपने जीवन का अंग बना लेता है, वह बाहरी और आंतरिक दोनों प्रकार की विपत्तियों से मुक्त होकर सौंदर्य, कीर्ति और विजय का अधिकारी बनता है।
यहाँ “रूप” केवल शारीरिक सौंदर्य नहीं, बल्कि अंतःशुद्धि और तेजस्विता का प्रतीक है।

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवि परं सुखम् ।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ॥

भावार्थ:
हे परम करुणामयी देवी! मुझे सौभाग्य, आरोग्य और परम सुख प्रदान करें। साथ ही मुझे रूप, विजय और यश दें, तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक देवी से सम्पूर्ण कल्याण की प्रार्थना है। “सौभाग्य” जीवन में शुभ अवसरों और समृद्धि का प्रतीक है, “आरोग्य” शरीर-मन की शुद्धता का, और “परं सुखम्” आत्मिक शांति का सूचक है।
इस प्रकार, साधक केवल भौतिक सफलता नहीं, बल्कि संपूर्ण आध्यात्मिक संतुलन की कामना करता है — जो देवी की कृपा से ही संभव है।

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे देवी! मेरे प्रति द्वेष रखने वालों का नाश करें, और मुझे ऊँचा, अडिग बल एवं सामर्थ्य प्रदान करें। मुझे रूप, विजय और यश दें, तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक साधक के भीतर अचल शक्ति और आत्मविश्वास जगाने की प्रार्थना है। यहाँ “द्विषतां नाशं” का अर्थ केवल बाहरी शत्रुओं से नहीं, बल्कि भीतर के द्वेष, भय, और दुर्बलता से भी है।
देवी की कृपा से साधक आत्मबल, धैर्य और निर्भयता प्राप्त करता है, जिससे वह धर्ममार्ग पर स्थिर रहकर विजय को प्राप्त करता है।

विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम् । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे सर्वमंगलमयी देवी! मुझे जीवन में कल्याण और परम ऐश्वर्य प्रदान करें। मुझे रूप, विजय और यश दें, तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह प्रार्थना केवल भौतिक वैभव के लिए नहीं, बल्कि आध्यात्मिक समृद्धि के लिए भी है। देवी साधक को धर्म, शांति और दिव्य संपन्नता का वर देती हैं, जिससे उसका जीवन संतुलित और पवित्र बनता है।

विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तं जनं कुरु । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे भगवती! अपने भक्तों को विद्या, यश और लक्ष्मी से सम्पन्न करें। मुझे रूप, विजय और यश दें, तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यहाँ “विद्या” केवल शास्त्रज्ञान नहीं, बल्कि बुद्धि की निर्मलता और विवेक का प्रतीक है। देवी की कृपा से भक्त ज्ञान, कीर्ति और धन — तीनों रूपों में समृद्ध होता है।

प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे चण्डिके! प्रचण्ड दैत्यों के अहंकार का विनाश करने वाली माता! आपको नमन करता हूँ — कृपा कर मुझे रूप, विजय और यश प्रदान करें तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक अहंकार और असुर-वृत्तियों के दमन की साधना है।
देवी चण्डिका वह शक्ति हैं जो अन्याय, अभिमान और नकारात्मकता को नष्ट कर धर्म की स्थापना करती हैं।

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसंस्तुते परमेश्वरि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे चार भुजाओं वाली, चार मुखों द्वारा स्तुत परमेश्वरी! मुझे रूप, विजय और यश प्रदान करें, तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
देवी के चार भुजाएँ धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष का प्रतीक हैं — जीवन के चार पुरुषार्थ। साधक जब इनका संतुलित अनुसरण करता है, तब देवी की कृपा से जीवन पूर्णता प्राप्त करता है।

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या त्वमम्बिके।रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे अंबिके! जिन्हें स्वयं श्रीकृष्ण नित्य भक्ति से स्तुत करते हैं —
आप मुझे रूप, विजय और यश प्रदान करें, तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक बताता है कि दिव्य भक्ति का स्रोत स्वयं ईश्वर के भीतर भी देवी के प्रति समर्पण से उत्पन्न होता है। भक्त जब नित्यता और श्रद्धा से देवी की आराधना करता है, तब उसका जीवन कृष्णभाव से ओतप्रोत हो जाता है।

हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि ।रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे परमेश्वरी! जिन्हें स्वयं हिमाचलसुतानाथ (भगवान शंकर) ने स्तुति की, आप मुझे रूप, विजय और यश प्रदान करें, तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
देवी और शिव का यह संबंध शक्ति और चेतना का प्रतीक है।
जब साधक अपने भीतर की शक्ति (देवी) और शांति (शिव) का संतुलन साधता है, तब जीवन में दिव्यता प्रकट होती है।

सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे अंबिके! जिनके चरणों का स्पर्श सुर और असुरों के मुकुटों में जड़े रत्नों ने किया है, आप मुझे रूप, विजय और यश प्रदान करें, तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक दर्शाता है कि देवी का महत्त्व देवताओं और असुरों दोनों के लिए समान है। उनकी कृपा प्राप्त करने से समस्त प्राणी अपने-अपने कर्म के अनुसार उन्नति पाते हैं।

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि । रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे परमेश्वरी! जिन्हें इन्द्र स्वयं आदरपूर्वक पूजते हैं, आप मुझे रूप, विजय और यश प्रदान करें, तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यहाँ देवी को दैवी सत्ता की अधिष्ठात्री शक्ति के रूप में दर्शाया गया है। स्वयं इंद्र भी उनके चरणों में नम्रता से समर्पित होकर शक्ति और सफलता प्राप्त करते हैं।

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे अंबिके देवी! जो अपने भक्तजनों को अप्रतिम आनंद और आंतरिक प्रसन्नता प्रदान करती हैं, आप मुझे रूप, विजय और यश दें, तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक भक्ति से उत्पन्न आनंद (भक्ति-रस) की अनुभूति को प्रकट करता है। देवी का सच्चा उपासक बाहरी सुख नहीं, बल्कि आत्मिक आनन्द का अनुभव करता है।

पुत्रान्देहि धनं देहि सर्वकामांश्च देहि मे। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि ।।

भावार्थ:
हे करुणामयी देवी! मुझे पुत्र, धन, और समस्त शुभ इच्छाओं की पूर्ति प्रदान करें। मुझे रूप, विजय और यश दें, तथा मेरे शत्रुओं का नाश करें।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक जीवन के चार आश्रमों की पूर्णता का आशीर्वाद माँगता है। देवी से प्रार्थना है कि वे भौतिक और आध्यात्मिक — दोनों प्रकार की समृद्धि प्रदान करें।

पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् । तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम् ।।

भावार्थ:
हे देवी! मुझे ऐसी पत्नी प्रदान करें जो मनोहर, सद्गुणी, कुलीन हो, और इस दुस्तर संसार-सागर से पार कराने में सहायक बने।

आध्यात्मिक संकेत:
यह श्लोक गृहस्थाश्रम की शुद्धता और सहचर के रूप में साधना के साथी की भावना को दर्शाता है। यहाँ “पत्नी” केवल भौतिक संबंध नहीं, बल्कि जीवन-सहयात्री आत्मा का प्रतीक है।

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः । स तु सप्तशतीसंख्यावरमाप्नोति सम्पदाम् ।।

भावार्थ:
जो मनुष्य इस चण्डिका स्तोत्र का पाठ कर, तत्पश्चात महास्तोत्र (श्री दुर्गा सप्तशती) का पाठ करता है, वह सप्तशती की संख्या के समान श्रेष्ठ सम्पदा और पुण्य का अधिकारी होता है।

एवं मार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रम् ।।

भावार्थ:
इस प्रकार मार्कण्डेय पुराण में वर्णित श्री अर्गला स्तोत्रम् का समापन होता है।

आध्यात्मिक संकेत:
यह स्तोत्र देवी महात्म्य का एक पवित्र अंग है — जो साधक के जीवन में शक्ति, समृद्धि, और विजय का संचार करता है।
नियमित श्रद्धापूर्वक पाठ करने से मन निर्मल होता है, और जीवन में देवी की कृपा का प्रकाश प्रस्फुटित होता है।

अर्गला स्तोत्र पाठ की शास्त्रीय विधि:

अर्गला स्तोत्र देवी उपासना का एक अत्यंत शक्तिशाली और शुभ स्तोत्र है। इसके पाठ से पूर्व श्रद्धा, शुद्धता और एकाग्रता अत्यावश्यक है। नीचे दी गई विधि का पालन करने से साधक को अधिकतम आध्यात्मिक एवं आधिदैविक लाभ प्राप्त होते हैं।

1. शुद्धि एवं आसन की तैयारी:

प्रातःकाल स्नान कर शुद्ध एवं स्वच्छ वस्त्र धारण करें। एक शांत, पवित्र एवं ऊर्जा-संवेदनशील स्थान का चयन करें। ऊनी या कुशासन पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठें।

2. देवी स्थापना (माँ दुर्गा का आसन):

अपने सामने एक स्वच्छ चौकी पर लाल या भगवा वस्त्र बिछाएँ।
उस पर श्रद्धा और भक्ति के साथ माँ दुर्गा की मूर्ति या पवित्र चित्र प्रतिष्ठित करें।
स्थापना के समय मन को एकाग्र रखें और यह भाव रखें कि स्वयं जगदम्बा आपके सम्मुख विराजमान होकर आपकी साधना स्वीकार कर रही हैं।

3. दीप एवं धूप अर्पण:

माँ दुर्गा के समक्ष श्रद्धा भाव से शुद्ध घी का दीपक प्रज्वलित करें और सुगंधित धूप अर्पित करें। दीपक प्रज्वलन ज्ञान और दिव्यता के प्रकाश का प्रतीक है, जबकि धूप अर्पण मन, वाणी और वातावरण की पवित्रता का सूचक है। इस क्रिया के साथ देवी की उपस्थिति का अनुभव करें और अपने भीतर शांति एवं भक्ति का प्रकाश जाग्रत करें।

4. संकल्प विधान (पाठ का शुभ आरंभ):

दोनों हाथों में जल, अक्षत (चावल) और पुष्प लेकर मन को एकाग्र करें। अपनी मनोकामना का स्मरण करते हुए विनम्र भाव से संकल्प लें —

“हे माँ जगदम्बे! मैं (अपना नाम), (अपना गोत्र) का, अपनी (मनोकामना) की सिद्धि हेतु, श्रद्धा और भक्ति से अर्गला स्तोत्र का पाठ कर रहा/रही हूँ। कृपया मेरी प्रार्थना स्वीकार करें और मुझ पर अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखें।”

संकल्प पूर्ण होने पर जल को भूमि पर धीरे-से अर्पित करें।
यह क्रिया देवी के समक्ष अपने संकल्प का पवित्रीकरण और साधना की औपचारिक आरंभिक स्वीकृति का प्रतीक है।

5. पाठ का आरंभ (मंत्रोपचार की शुरुआत):

पाठ प्रारंभ करने से पूर्व प्रथम भगवान श्री गणेश का ध्यान करें, क्योंकि वे विघ्नविनायक हैं — समस्त बाधाओं को दूर करने वाले। इसके पश्चात श्रद्धा और भक्ति के साथ विनियोग मंत्र उच्चारित करें —

“अस्य श्रीअथार्गलास्तोत्रमन्त्रस्य विष्णुः ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रीजगदम्बा प्रीतये सप्तशतीपाठाङ्गजपे विनियोगः।”

इस विनियोग के साथ मन में यह संकल्प दृढ़ करें कि यह पाठ माँ जगदम्बा की प्रसन्नता और आत्मिक कल्याण के लिए समर्पित है, फिर शांत और श्रद्धामय भाव से अर्गला स्तोत्र का पाठ आरंभ करें।

6. स्पष्ट उच्चारण एवं भावपूर्ण पाठ:

स्तोत्र का पाठ करते समय स्पष्ट, शुद्ध और मधुर उच्चारण का विशेष ध्यान रखें। उच्चारण में पवित्रता, गति में संतुलन और स्वर में श्रद्धा बनी रहे — यही पाठ की शोभा है।

यदि संस्कृत पठन में कठिनाई अनुभव हो, तो आप हिंदी अर्थ को भी पूर्ण भक्तिभाव और एकाग्रता से पढ़ सकते हैं। याद रखें — देवी भाव की पूजक हैं, शब्दों की नहीं। शुद्ध हृदय और समर्पित मन से किया गया पाठ ही सच्चा अर्गला स्तोत्र जप कहलाता है।

7. पाठ की संख्या एवं महत्त्व:

अर्गला स्तोत्र का पाठ अपनी श्रद्धा, समय और सामर्थ्य के अनुसार करें। आप इसे १, ३, ५, ७ अथवा ११ बार पाठ कर सकते हैं — प्रत्येक आवृत्ति साधक के संकल्प को और दृढ़ करती है।

नवरात्रि, अष्टमी, चतुर्दशी, अथवा शुक्रवार के दिन इसका विशेष आध्यात्मिक महत्त्व होता है। नवरात्रि के नौ दिनों में नियमित पाठ करने से साधक को दुर्गा सप्तशती के समान पुण्यफल प्राप्त होता है और देवी की कृपा से जीवन में विजय, शांति और समृद्धि की वृद्धि होती है।

8. पाठ का समापन एवं क्षमायाचना:

पाठ पूर्ण होने के पश्चात श्रद्धा और भक्ति के साथ माँ दुर्गा की आरती करें। आरती के समय मन में यह भाव रखें कि देवी ने आपके जप, भाव और समर्पण को स्वीकार किया है।

इसके बाद विनम्रतापूर्वक प्रार्थना करें — “हे माँ जगदम्बे! पाठ के दौरान उच्चारण, भावना या विधि में जो भी त्रुटि मुझसे हुई हो, कृपया उसे क्षमा करें और अपनी कृपा बनी रखें।”

यह क्षमायाचना साधना की विनम्र पूर्णता का प्रतीक है —
क्योंकि सच्ची उपासना का अंत सदैव कृतज्ञता और नम्रता में ही होता है।

निष्कर्ष:

अर्गला स्तोत्र केवल श्लोकों का समूह नहीं, बल्कि भक्त और माँ के बीच होने वाला एक आत्मिक संवाद है। यह वह दिव्य कुंजी है जो सौभाग्य, सफलता, और समृद्धि के द्वार खोलती है।

जब जीवन की राहों पर बाधाएँ घनीभूत हो जाएँ, जब प्रयासों के बावजूद मार्ग बंद प्रतीत हो, तब माँ चण्डिका की यह पावन स्तुति साधक के जीवन में आशा, शक्ति और समाधान का प्रकाश बनकर प्रकट होती है।

यह स्तोत्र हमें यह सिखाता है कि देवी से प्रार्थना कैसे की जाए — सरलता में श्रद्धा, विश्वास में दृढ़ता, और समर्पण में सम्पूर्णता के साथ। जो साधक इन भावों के साथ अर्गला स्तोत्र का पाठ करता है, उसके जीवन से दुःख, भय और निराशा दूर होकर शक्ति, शांति और सौभाग्य का संचार होता है।

आपके जीवन में भी यह स्तोत्र एक आध्यात्मिक सहारा और मार्गदर्शक प्रकाश बन सकता है।आप कब से माँ दुर्गा की इस दिव्य स्तुति को अपने जीवन का हिस्सा बना रहे हैं?

अपना अनुभव और श्रद्धाभाव नीचे टिप्पणी में हमारे साथ साझा करें — क्योंकि भक्ति तब पूर्ण होती है जब वह प्रेरणा बनकर दूसरों के हृदय तक पहुँचती है।

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